Thursday 14 November 2013

                          खुद को  बदलो …  शुरुवात तो करो!!



हमारे समाज  में  लव मैरिज  को क्यों नही एक्सेप्ट  कर पाते  भले  ही वो  करीना कपूर और  सैफ  अली खान  ही क्यों न हो।  यह  कहना  है आम  आदमी  का।  इस तरह  के विवहा  से  insecure  फील  करने लगता है।  इस  माध्यम  वर्गीय  आम आदमी  के मन में  अजीबो  गरीब  सा  डर  है  वह  असुरक्षित  है।  सहमा  हुआ है और अपना  जीवन  डर  डर  कर काट  रहा है।  उसे  इस  बात  का डर  होता है कि कहीं उसकी  बेटी प्रेम  विवाह  न कर  ले , घर से न भाग  जाये, गैर  मजहब  लड़के से विवाह   न कर  ले इसलिए  वह  समय -समय   पर अपनी बेटी को आगाह  करता है। यह अन्दर  से डरा  व्यक्ति  पूरी आत्मविश्वास  और दृढ़ता  से प्रेम का विरोध करता है।  समाज  के अधीन  होकर  सालो से उसकी गुलामी  कर  रहा है।   यह  आदमी अपने  इस काम  को जारी  रखना  चाहता  है।  वह  अपना डर  और असुरक्चित  होने का आहसास  अपनी  नयी पीढ़ी  को सौप  देना चाहता  है।   एक अच्छी  एजुकेशन  अच्छी पढाई  अच्छा पालन पोषण  सब  देना चाहता  है पर  नयी सोच  पैदा  करने  का मौका  नई पीढ़ी को  नही देना चाहता  है। एक  आम  आदमी कपडे तौर  तरीके हर चीज़  ज़माने  को लेकर  चल रहा है पर  जब समाज  उसे  सामना करने  का मौका आता  है तो  वह  अपनी नजरे  फेर  लेता है  । आज  का मानव आधुनिकता कि बाते  करता है पर क्या  सही  मायने  मे अगर  आधुनिकता  का मतलब जाने  तो केवल कपडे , बोल -चाल बदल   लेना  ही नही है  बल्कि  सोच में परिवर्तन  करना ही आधुनिकता  है, समाज  कि उन्नति  है।  पर ये  सब बनावटी  है अगर अप अपनी सोच  में परिवर्तन न ला पा  रहे है।  सोसाइटी  में  आए  दिन  हो रही  दहेज प्रथा  , घरेलु  हिंसा  शोषण  और हॉनर  किलिंग जैसे  मामले इनके विरोध  जताने  का एक जीता  उदहारण है।  क्यों  कई  घरो  में  हो रही शोषण  और मार पीट  इन पुरषो  कि चिंता  का  विषय  नही है ?  क्यों  अपनी गलतियों कि कोई सजा   निर्धारित नही   कि।  क्यों उन्हें  केवल आपत्ति  है प्रेम  विवाह से ! यही  एक कारण  है कि आज   लोग बढ़  रहे है तरीके बदल रहे है पर आज भी  देखा जाये तो समाज वही का वही सक्रिय  रहा गया।दूसरो में बदलाव दिखेने से पहले खुद के सोच में परिवर्तन लाना  जरूरी है। 

Tuesday 17 September 2013

                 "शुद्ध  देशी रोमांस" का असर  युवाओ में 


अभी तक आपने  यश   राज  फिल्म की यादगार  प्रेम कहानियां  देखी  है   यश राज जी ने  कई  ऐतिहासिक  लव स्टोरी के साथ  ही कई यादगार जोडिया भी दी है  लेकिन जैसे जैसे युग बदला वैसे वैसे  परिभाषा  भी बदली  और साथ ही साथ यश राज की लव स्टोरीयों  में  भी बदलाव दिखने  मिले  हालहीं  में आई  यश राज जी की फिल्म "शुद्ध देशी रोमांस " में यश  जी ने आज की यंग जनरेशन  की सोच और उनके प्यार , शादी को  लेकर कन्फ्यूज्ड सोच सामने लाकर रख दिया  फिल्म की शुरुवात  से लेकर अंत तक यूथ के जीवन  की उन बातो और कमजोरियों  के बारे में पता चलेगा  जिनके  बारे में  पुराने  ज़माने  के लोग शायद सोच भी नही सकते।  आज की युवा पीढ़ी  अपने रिस्तो  और शादी लेकर किस हद तक कन्फ्यूज्ड है, किसी भी बंधन से बंधने   से कितना डरती है  हर चीज़  को समझने के लिए उन्हें पहले  उस चीज़  के बारे में experience चाहिए , इस फिल्म में जैसे  दिखाया  गया है "लिव इन रिलेशनशिप"  के बारे में , इसलिए  यूथ ने इस फिल्म को  पसंद  किया है  लिव इन रिलेशनशिप  जैसे चीजों  में उन लोगो की रूचि  होती है जो भारतीय  मूल्यों  और सांस्कृतिक  में विश्वास  नही रखते  और लिव  इन रिलेशनशिप इसी  का कांसेप्ट  है  परिवार  की जिम्मेदरिया या संस्कार  का नामोनिशान  तक नही  होता   अब इसका ट्रेंड  भारत में भी आ गया है लेकिन   समाज में इसे बहुत  अधिक  बढावा  नही मिला  लिव  इन रिलेशनशिप का चलन  महानगरो  में अधिक देखने  को मिल रहा है  जैसा  की अब इसे बड़े  शहरों  में मान्यता  मिल गयी है तो निश्चित  रूप से उन युवाओ का समर्थन  है जो इसमें  विश्वास  रखते है  हालाकिं  मान्यता मिलने या न मिलने से बहुत  अधिक फर्क  नही पड़ने  वाला है क्यूकि  सही  और गलत   समाज  में पहेले से ही मौजूद  है  पर आज कल के youngester  लिव  इन रिलेशनशिप को सही मानते है क्यूकि  अधिकतर मौको  पर यह  देखने  में आता  है  कि लोग शादी के बंधन में  बंधने  के बावजूद  एक दूसरे  के प्रति समर्पड  का भाव  अधिक  समय  तक नही रख पाते है इससे अच्छा  है की बेहतर  समय के आधार  पर वो लोग साथ रहे 
                                                               युवा पीढ़ी  अब बिना किसी  समझोते  , त्याग  और दायित्य  निर्वाहन  के उन्मुक्त  बंधनहिन   जीवन  जीना  चाहती  है अनेक  कानूनी  बाध्यताओ  के चलते  जहाँ  पुरुष  "विवाह " के नाम  से हिचकने  लगते है वही  महिलाओ  के लिए विवाह  एकतरफा    दायित्य का  निर्वाहन है  प्रशन यंहा  नही है की लिव  इन रिलेशनशिप  कितना सही  है या कितना  गलत  प्रशन  यह  है कि युवा  पीढ़ी  रिश्तो  के मायने  क्या समझती है ? यह तय  है कि  समाज के बाह्य  सुवरूप  में चाहे  कितना भी परिवर्तन  क्यों न हो जाए परन्तु   रिश्तो  को निभाने  के लिए प्रेम और समर्पड आवश्यक  है , भले  ही लिव  इन रिलेशनशिप को मान्यता मिल गयी हो पर हमारी परम्परा  और सांस्कृतिक  इसकी  इजाज्त  नही देता।  ऐसे  रिश्तो  का आगे  भविष्य  हो या न हो इसका  ठिकाना  भी नही होता है और इसमें सबसे  बड़ा नुकसान  लड़की का होता है , इसे अब चाहे  समाज की सोच कहे  या भारतीय  संस्कृति  , युवा  पीढ़ी को यह समझना होगा की शर्तो  पर टिके  रिश्तो  का जीवन अल्पहीन होता है ।  वह अधिक समय तक नही रहता है  

Monday 26 August 2013

                                               आक्रोश 


एक  और  सामूहिक  दुष्कर्म।     मुंबई  में एक  फोटो जर्नलिस्ट  शिकार  बनी , 22 aug  को हुई  इस  घटना ने  एक  बार फिर पूरे देश में आक्रोश  और  शोक  की  भावना  जाग्रत  कर दी , पर सवाल यह उठता कि  क्या ऐसी  घटना मात्र खबर बन कर ही रहा जाएगी या इसके खिलाफ कोई सक्त कदम भी उठाया  जायेगा ? अब इसमें सरकार  को भी क्यों गलत दोषी करार दे हमारे असवेदनशील सरकार अपनी नीजी  ज़िन्दगी  के हेर- फेर से फुरसत  होकर यह सुनिश्चिय  नही कर पा रही है की इस तरह की घटना पर कैसे अंकुश लगाया जा सके , यह केवल दिखावा  कहे या ज़मीनी सच्चाई से परे बाते की महिलाओ को देवी का दर्जा दिया गया है।   पर आज वही देवी दुनिया पर बोझ  और समाज का शिकार बन गयी है ।  देश में हर साल दुष्कर्म के करीब 24,000  मामले दर्ज होते है जिसमे  से कई मामले माँ- बाप शर्मिदगी  के  कारण दबा देते है अक्सर दिखा जाता है की जब भी इस प्रकार की बड़ी घटना सामने आती है तो देश के लोग गुस्से से उबलने लगते है ।  इंसाफ  के लिए सड़क पर उतर आते है आन्दोलन करने लगते है धीरे धीरे समय बीतते ही आक्रोश नम पड़  जाता है ।
                      पर यह सबसे अफ़सोस की बात है कि दुष्कर्म की शिकार लडकियों के साथ ऐसे व्यवहार  किया जाता है जैसे मानो वे चरित्रहीन  और दुराचारी हो  । जबकि इसके विपरीत  दुष्कर्म करने वाले अधिकांश लोग खुले घूमते रहेते है , उन्हें सजा की न तो डर होती है  और न ही समाज का कोई शर्म , इससे पहले ऐसे ही एक  घटना जो भूले न भूल सकेगी 16 /dec /012  दिल्ली  की वो दर्दनाक घटना  । यह गुनहा भी गैंग रेप  का था ।  यह घटना इतनी दर्दनाक थी की पूरे देश को झिंझोर कर रख दिया, इस घटना को अंजाम देने के लिए लोग सडको पर उतर आये इंडिया गेट और देश के विभिन हिस्सों में विरोध प्रदर्शन होते रहे।    इस घटना के बाद महिला की सुरक्षा को लेकर कानून सक्त हो गयी और सरकार ने ऐसी घटना दुबारा न होने का  भरोसा दिलाया परन्तु ऐसा लगता है कि ऐसी घटना न केवल लगातार होती रही ।  सच्चाई यह है की ऐसी घटना को रोक पाने में सरकार पूरी तरह से विफल रही है केवल सक्त  कानून बना देना ही सुरक्षा नही है दुष्कर्म जैसी संगीन अपराध को तब थक नही रोक जा सकता है जब तक इन गुनेगार को कड़ी से कड़ी सजा न मिल जाये ।  पर हम इसका पूरा दोष कानून और सरकार को भी कब तक दे ? कहते है जब बीज ही खराब हो तो फल तो खराब निकलेगा ही इस प्रकार अगर घर परिवार में शुरुवात से ही यह शिक्षा न दी जाती कि लड़का कुछ भी गलती करे चलेगा  लेकिन लड़की ऐसा नही कर सकती  । लडकियों को सिखाया ही यही जाता है कि मर्यादा  का पालन करे और समाज के रीति नीति के मुताबिक रहे ।  यह सामाजिक दोष का क्योंकि  हमारे  समाज में ही लड़के और लडकियों में भेद भाव है  यदि समाज और सरकार मिलकर ऐसी घटना के लिए सक्त कानून बनाये और तुरंत ऐसी संगन अपराध के लिए कड़े नियम कानून बनाये तो ऐसी घटना दुबारा अंजाम देने के लिए भी सोचेगी , सरकार एक्ट न करे बल्कि रियेक्ट करे। 

Monday 29 July 2013

                                        ये कैसा मजाक  था  ?

आधुनिक समाज  का अभिशाप है गरीबी और उसमे  बदनसीबी  यह  है कि  गरीबी  को गरीबी न मानना , इसमें सरकार  ने गरीबी के अभिशाप  का मजाक़  उड़ाते  हुआ गरीबी की नई  परिभाषा  लिखी  है ,जिस  रकम  में  आदमी अपनी एक दिन की आवशयक  ज़रूरते  भी  पूरी  न कर सके , उस  व्यक्ति  को सरकार  गरीबी रेखा  से ऊपर  कर दे, हमारी  सर्कार सच्चाई  जानना  और समझना ही नही चाहती है , इतनी  महंगाई  के  बीच  कांग्रेस  का यहाँ कहेना की शहर  में प्रतिदिन 32 rs और गावं  में 25 rs  अधिक  खर्चा करने वाला  गरीब नही  है ,नई  देल्ही में  5 rs  और मुंबई  में  १२ rs  में  भरपेट  भोजन  उपलब्ध  है , यह  शब्द  गुस्सा  दिलाने से कम नही  है , इस  घिनोने  मजाक उड़ाने  के पीछे  एक ही कारण  हो सकता  है कि वे जमीनी  हकीकत  से  अनजान  है , वे ये भूल  गए है कि  वे 80 -90 के  दशक  में  नही  है ,इस  चलती मंहगाई में  शायद  एक आदमी  इस रकम  में एक टाइम  का भरपेट  का खाना  भी न खा  सके अन्य  जरूरते  तो बाद  की चीज़े है , अगर सच्चाई  रूप  से देखा  जाये तो यदि  आम  लोग पौष्टिक  भोजन  का  प्रबन्ध  करने  में  नाकाम  है और अपने  बच्चो  को उचित  शिक्षा  एवं  अन्य  बुनियादी  जरूरते  उपलब्द नही  करा प् रहे  है तो  वे गरीबी रेखा से नीचे  ही कहलंगे , बेहतर  यह  होगा कि  सर्कार इस  चीज़ को समझ ले और यह  सोचे  कि  महंगाई के इस  दौर  में आम जनता और विशेष  रूप से निधर्न  तबके  के लोगो  की अवश्यकताओ  की पूर्ति कैसे  हो ?